!!! आदत डालें !!!
(जय सोनल माँ )
अपने कुटुम्बियों से लेकर विघ्न संतोषियों और भयंकर ईष्र्यालु लोगों का हर
समाज और समुदाय में वजूद होता ही है और ऎसे में जो लोग थोड़ा भी ऊँचा उठने
का प्रयास करते हैं समाज की कैंकड़ा संस्कृति और टाँग ख्िंाचाऊ मनोवृत्ति
उन्हें बार-बार नीचे गिराने और धकेलने के हरचंद प्रयास करती रहती है। इनके
बावजूद ईश्वरीय अनुकंपा और बुलंद हौंसलों से ये लोग वहाँ पहुँच ही जाते हैं
जहाँ उन्हें पहुँचना होता है। लेकिन बहुसंख्य लोग इन कुटिल और खल लोगोंं
की दुष्टताओं और धूत्र्तताओं की वजह से अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते
हैं। समाज की यह मनोवृत्ति कोई आज की बात या नई बात नहीं है, पुराने जमाने
से यही सब चला आ रहा है। मनुष्यों में भी एक निश्चित अनुपात में पशु
प्रवृत्ति के लोग हर युग में हुए हैं जिन्होंने नकारात्मक दृष्टिकोण और
विध्वंस की गतिविधियों का प्रतिनिधित्व किया है। ऎसे लोग हमारे बीच आज भी
हैं। हमारे आस-पास ऎसे लोगों की कोई कमी नहीं है, कई तो हमारी रोजमर्रा की
जिन्दगी में रोज हमसे टकराते हैं।
यही वजह है कि न समुदाय तरक्की कर पाता है, न समाज और राष्ट्र। चंद
हरामखोरों और व्यभिचारियों की वजह से समाज में आपसी द्वन्द्व, प्रतिशोध,
ईष्र्या और द्वेष के साथ कटुता और कलह का माहौल सदैव विद्यमान रहता है।
ईश्वर की जाने किस भूल से असमय मनुष्य की खाल में पैदा हो गए इन स्वार्थी
और वज्रमूर्खों की वजह से समाज को कितना बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है इसकी
कल्पना ये गधे, लोमड़ और उल्लू कभी नहीं कर सकते क्योंकि इन्हें सृजन से
कहीं अधिक विध्वंस प्रिय होता है और इनकी उद्देश्यहीन जिन्दगी का और कोई
मक़सद होता ही नहीं। समाज के लिए इन नुगरों और विध्वंसक लोगों का होना ही
समूची मानवता और सम सामयिक काल खण्ड के लिए कलंक से कुछ ज्यादा नहीं हुआ
करता। ये तो पहले भी कुछ नहीं थे और न इन्हें कुछ बनना होता है, बल्कि इनकी
वजह से समाज आगे नहीं बढ़ पाता। अपने मानव समाज में हर क्षेत्र में
विभिन्न विधाओं, समाज-जीवन के कई-कई आयामों में ऎसी-ऎसी शखि़्सयतें और
उच्चतम मेधा-प्रज्ञा से भरपूर खूब हस्तियाँ हमारे आस-पास हैं लेकिन हमारी
विराट, उदात्त और व्यापक दृष्टि का अभाव हमें इनकी पहचान करने ही नहीं देता
और हम इन्हें हमारी तरह ही संकीर्ण परिधियों वाले छेदों से होकर देखने की
आदत बना बैठे हैं।
इस वजह से समाज की असली क्रीमी लेयर की खूबियों से हम अनभिज्ञ और किनारे पर
ही रहते हैं। यही नहीं तो हमारी वजह से ये हस्तियाँ भी हाशिये पर रह जाती
हैं और वह सम्मान या आदर प्राप्त नहीं कर पाती जो इन्हें सहज ही प्राप्त हो
जाना या मिलना चाहिए। यह उन हस्तियों का नहीं हमारा दोष है। समाज की कितनी
बड़ी विड़म्बना है कि ऎसे लोगों के जीते जी हम उनके सम्मान में तारीफ के
दो बोल बोलने तक में हिचकते हैं जैसे कि हमारे मुँह को लकवा मार गया हो या
किसी ने मुँह बन्द कर देने को विवश कर दिया हो। दुर्भाग्य
यह कि इनके संसार से जाने के बाद हम तमाम प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर
उनकी प्रशस्ति में कीर्तिगान करते हैं और विज्ञापनों के जरिये श्रद्धाँजलि
व्यक्त करते हैं, भले ही ऊपर से ही सही। दिखावे के लिए हम इतना सब कुछ
आडम्बर रच देते हैं जैसे कि उनके गुजर जाने के बाद उनके परिजनों से कहीं
ज्यादा दुःख उन्हें ही हुआ हो। यही कीर्तिगान उनकी मौजूदगी में होता तो
उनकी ऊर्जाओं का दायरा बढ़कर इतना अधिक हो सकता था कि इसका फायदा समाज को
जो मिलता उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। जिनके
जीते जी उनका लाभ लेने के सारे अवसर हम गँवा देते हैं, उनकी मौत के बाद
उनका नाम अमर रखने के लिए हम कितने जतन करते हैं, यह हमारी पशु भावना को ही
तो र्अभिव्यक्त करता है।
मौत के बाद उनकी प्रशस्ति इसलिए कि इसका कोई असर नहीं होता क्योंकि हम जो
कुछ कह रहे हैं, लिख या लिखवा रहे हैं उसे सुनने या देखने वाला रहा ही
नहीं, जिसका कि हमें खतरा था कि यह सब देख-सुन कहीं वह और ज्यादा आगे नहीं
बढ़ जाए या कहीं से कुछ और अधिक सम्मान पा नहीं जाए। एक और नई बात हो गई
है। मृत्यु उपरान्त उत्तरक्रियाओं की समाप्ति के दिन या पगड़ी रस्म मेंं अब
लैटर हैड़ी संवेदनाओं और प्रशस्तिगान का दौर शुरू हो गया है। जीते जी
उपहास और उपेक्षा करने वाला समाज और समाज के ठेकेदार किस्म के लोग दिवंगत
आत्मा की प्रशस्ति का गान करने वाले पत्रों का वाचन करने लगे हैं। भीड़
तलाशने वाले इन (अ) सामाजिक ठेकेदारों के लिए इसी तरह के गंभीरतम मंच की
तलाश हमेशा बनी रहती है जब पिन-ड्रॉप साइलेंस के बीच ये घड़ियाली आँसू
बहाते हुए लोकप्रियता पाने के हथकण्डों का पूरा इस्तेमाल कर गुजरते हैं और
समाजजनोें के बीच सामाजिक होने की स्थिति का आभास कराते रहते हैं।
कई स्थानों पर तो ऎसे चार-पाँच लोगो का एक समूह ही बन गया है जिसका काम
ही पगड़ी रस्मों में शोक संदेश वाचन का रह गया है। बड़े लोगों के पीछे दुम
हिलाने में माहिर दलाल किस्म के ये गन्दे और मलीन लोग किसी भी समाज के
जीवित लोगों के लिए कुछ करें या न करें, समाज के दिवंगतों के लिए समय जरूर
निकालते हैं। समाजजनों की भी यह विवशता होती है कि इनकी बनाई परंपराओं को
तोड़ने का साहस कौन करे? यह भी समाज का दुर्भाग्य ही है कि जीते जी उन्हीं
लोगों की तारीफ होने लगी है जो मरे हुए हैं या अधमरे हैं। इन लोगों में
मानवता या संवेदनाओं का लेश मात्र भी कतरा नहीं होता, पूरी जिन्दगी पशुता
के साथ जीते हैं। ऎसे कमीनों की प्रशस्ति का गान करने में पूरा समाज जुट
जाता है क्योंकि ऎसा न करें तो इन हिंसक वृत्तियों वाले दैत्यों से स्वार्थ
पूरे न होने का अंदेशा होता है या फिर अनजाना भय। चाहे कुछ भी हो जिस दिन
हम अच्छे लोगों की तारीफ उनके जीते जी करने का स्वभाव अपना लेंगे, उसी दिन
से हमारी दृष्टि के साथ ही यह सृष्टि भी बदल जाएगी।
हसमुख गढवी
अहमदाबाद (जशोदानगर )
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